प्रभात गुप्ता | नई दिल्ली
लोक आस्था का महापर्व छठ बिहार की सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न अंग है। छठ पूजा का आयोजन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि से चौथे दिन की सूर्योदय तक का होता है। यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल में मनाया जाता है. बिहार के हिंदुओं द्वारा मानये जाने वाले इस पर्व के लौकिक प्रभाव से अवगत होकर बिहार के मुस्लिम समुदाय सहित अन्य धर्मों के लोगों के द्वारा भी इसे मनाया जाने लगा है. चार दिनों के इस पर्व की पूजा विधि बहुत ही कठिन होती है।
छठ का पौराणिक कथाओं से संबंध–
छठ पूजा का संबंध रामायण और महाभारत से भी जुड़ा है. पौराणिक कथा के अनुसार राजा प्रियंवद के कोई संतान नहीं थी. महर्षि कश्यप के पुत्रेष्टि यज्ञ उपरांत प्रियंवद को पुत्र की प्राप्ति हुई लेकिन वह मृत पैदा हुआ जिसके शोक में राजा प्राण त्यागने लगे। तभी ब्रह्मा जी की मानस कन्या( षष्ठी) ने राजा से षष्ठी व्रत करने को कहा. राजा ने विधिपूर्वक व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
ऐतिहासिक कथाओं के अनुसार सीता माता ने बिहार के मुंगेर में गंगा किनारे छठ किया था. उसके बाद अनवरत छठ मनाया जाता रहा है. इसका संबंध देवासुर संग्राम से भी जुड़ा हुआ है
क्या है छठ पूजा की विधि?
छठ की शुरूआत पहले दिन “नहाय-खाय” से होती है। इसमें व्रती अपने आस – पास के नदी या फिर गंगा में स्नान करती है. व्रती महिलाएं कद्दू और चना दाल की सब्जी और अरवा चावल का उपयोग खाने में करतीं हैं। वहीं इसका अगला दिन खरना होता है जिसमें व्रती निर्जला उपवास करती है. शाम होने पर व्रती के द्वारा चावल गुड़ और गन्ने के रस का प्रयोग कर खीर बनाया जाता है। प्रसाद बनने के बाद नैवैद्य चढ़ा फिर एकांत रहकर उसे ग्रहण करती हैं।इस समय किसी भी प्रकार का शोरगुल नियमों के विरुद्ध है।संध्या अर्घ्य” के साथ छठ के तीसरे दिन की शुरूआत होती है यह चैत्र या कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है। व्रती प्रसाद बनाने में जुट जाती हैं। जिसमें ठेकुआ , पूरी , चावल के आंटे का लड्डू ( कचवानिया) और कंद मूल में नारियल , नींबू(बड़ा), ईख और फलसब्जी, मसाले और पका हुआ केला चढ़ाया जाता है सभी सामग्री को बांस की टोकरी में करके घाट पर ले जाकर डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है । चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य देकर महापर्व का समापन होता है. सुबह 3 बजे ही उठ कर शाम के पकवानों को नए पकवानों के साथ बदल कर और फिर घाट पर जाते हैं। व्रतीयां पूरब दिशा की ओर पानी में खड़ी होती है और सूर्योपासना कर सूर्योदय का इंतजार करती है. सूर्योदय के उपरांत सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. सारी विधि संध्या अर्घ्य के तरह ही होता है। छठ पूजा के समापन के बाद प्रसाद वितरण किया जाता है।
बिहार वासियों की भावनाओं से जुड़ा यह त्यौहार वैदिक काल से चला आ रहा है. सारे शास्त्रों से अलग यह जन सामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों के रंगों में गढ़ी गयी उपासना पद्धति है। इसके केंद्र में वेद, पुराण जैसे धर्मग्रन्थ न होकर किसान और ग्रामीण जीवन है। इस व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता है न पुरोहित या गुरु के अभ्यर्थना की। जरूरत पड़ती है तो पास-पड़ोस के सहयोग की जो अपनी सेवा के लिए सहर्ष और कृतज्ञतापूर्वक उपस्थित रहता है।
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